पक्षधर

प्रतिरोध की संस्कृति का रचनात्मक हस्तक्षेप

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पक्षधर के प्रिय पाठकों को यह सूचित करते हुए हमें दुःख हो रहा है कि विवश होकर हमें इस अंक से पक्षधर के दाम में वृद्धि करनी पड़ रही है । पिछ्ले 10 सालों में पहली बार यह वृद्धि हो रही है । उम्मीद है कि पाठकों का सहयोग हमें पूर्ववत मिलता रहेगा । दरअसल हाल ही में, भारत सरकार ने डाक दरों में अप्रत्याशित वृद्धि करते हुए बिना सोचे-समझे 'पंजीकृत बुक पोस्ट' का विकल्प हमसे छीन लिया । हम माननीय प्रधानमंत्री को इस बाबत एक खुली चिट्ठी भी लिख रहे हैं : प्रधानमंत्री को यह चिट्ठी पहुँचे : [यह चिट्ठी पक्षधर के संपादकीय का एक हिस्सा है] प्रधानमंत्री जी, नमस्कार । प्रधानमंत्री जी, मैं जानता हूँ कि यह नया भारत है – डिजिटल इंडिया । आप एक्स (ट्विटर) पर ही जो कुछ लिखना होता है लिखते हैं । जो कुछ बोलना होता है, 'मन की बात' में बोल देते हैं । चिट्ठी लिखना अब पुरानी बात हो गयी । फिर भी, आपको यह चिट्ठी लिख रहा हूँ । कभी हिंदी के मशहूर साहित्यकार हरिशंकर परसाई ने स्वर्गीय महात्मा गाँधी को एक चिट्ठी लिखी थी । उसका शीर्षक था – महात्मा गांधी को चिट्ठी पहुँचे । महात्मा गाँधी भी गुजरात के महान सपूत थे, आप भी गुजरात के सपूत हैं । इसलिए सोचा कि इस चिट्ठी का शीर्षक क्यों न परसाई जी की चिट्ठी से चीट कर लिया जाए । हालाँकि, मैं चाहता तो परसाई जी को क्रेडिट दिए बिना भी यह कर सकता था । क्योंकि इन्टरनेट और डिजिटल इंडिया के ज़माने में क्रेडिट देना 'ओल्ड फ़ैशन' माना जाता है । बहरहाल... प्रधानमंत्री जी, न मैं संसद सदस्य हूँ , न विधायक, न मंत्री, न नेता । इनमें से कोई ऐब मुझे नहीं है । हाँ, एक ही ऐब है – पढ़ता-लिखता हूँ । एक पत्रिका निकालता हूँ, उसका संपादक हूँ । कहा जाता है कि महात्मा गाँधी देश में कहीं भी भ्रमण पर हों, भारत के किसी भी हिस्से में रह रहे हों, केवल उनका नाम लिखकर और नीचे भारत अथवा इंडिया लिखकर चिट्ठी भेज देने पर, उन तक वह चिट्ठी पहुँच जाती थी । मुझे नहीं पता कि स्वर्ग में महात्मा गाँधी तक परसाई की चिट्ठी पहुँची या नहीं ? पर मेरी यह चिट्ठी आप तक ज़रूर पहुँच जाएगी, ऐसा दृढ़ भरोसा है । हाँ, महात्मा गाँधी के बारे में यह भी कहा जाता है कि वो हर चिट्ठी का जवाब ज़रूर देते थे । मैंने सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) में देखा है कि उनका जहाँ शौचालय था, उसमें एक बॉक्स रखा हुआ है, जिसमें चिट्ठियाँ रखी जाती थीं । शौचालय की एक दीवार में बाहर कि ओर खुलने वाली खिड़की है । असल में, गाँधी जी को कब्ज और पेचिश की बीमारी थी, इसलिए उन्हें शौचक्रिया में वक़्त अधिक लगता था । अतः उसी दौरान वे चिट्ठियाँ पढ़ते जाते और हर चिट्ठी का जवाब, बाहर खिड़की के पास पेन और पोस्टकार्ड लेकर बैठे अपने निजी सचिव श्री महादेव भाई देसाई को बोल कर लिखवा देते थे । प्रधानमंत्री जी, आप चिट्ठी का जवाब भले न दें, क्योंकि आप की अतिशय व्यस्ततम दिनचर्या से राष्ट्र वाक़िफ़ है । दिन-रात देशहित में सन्नद्ध रहने के चलते आपको सोने का भी वक़्त मुश्किल से ही मिल पाता है । पर आपसे सविनय निवेदन है कि डाक दरों में, आपकी सरकार द्वारा जो नया सुधार हुआ है, उसमें से 'पंजीकृत बुक पोस्ट' के विकल्प को ख़त्म न किया जाए और उसकी दरें आनुपातिक रूप से अन्य डाक दरों से कम रखी जाएँ । वैसे भी यह देखने में आया है कि धीरे-धीरे पुस्तकालय-संस्कृति, पुस्तक-संस्कृति, पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन की संस्कृति में गिरावट जारी है । आप और आप की सरकार 'संस्कृति' को बचाने के लिए तो प्रतिबध्द कही जाती है । ऐसे में, विश्वास करें कि 'पंजीकृत बुक पोस्ट' की व्यवस्था की पुनर्बहाली व्यक्ति, समाज और राष्ट्र निर्माण में एक सकारात्मक फैसला ही होगा । कोई भी राष्ट्र यह नहीं चाहेगा कि उसके नागरिक अध्ययन, मनन, चिंतन, विचार आदि से दरिद्र हों । किताबें, पत्र, पत्रिकाएँ किसी न किसी रूप में एक स्वस्थ वायुमंडल तैयार करती हैं । उम्मीद है आप इस ओर ध्यान देंगे । अग्रिम धन्यवाद सहित, आपका विनोद तिवारी